मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

गुलशन

मैंने गुलशन को कई बार संवरते देखा
हर तरफ रंग का खुशबू का समा होता है
पंछियों की चहक सरगम का मज़ा देती है
चांदनी टूट के गुलशन में बिखर जाती है
धूप पत्तों को उजालों से सजा देती है
कोई अल्हड़ कोई मदमस्त हवा का झोंका
शोख़ कलियों का बदन छू के निकल जाता है
इस शरारत से भी कलियों को मज़ा आता है
सबसे आंखें बचा के कलियाँ चटक जाती हैं
फूल खिलते हैं तो गुलशन में बहार आती है

पर ये रंगीन फ़ज़ा और ये गुलशन की बहार
वक़्त के साथ वीराने में बदल जाती है
धूप की तल्खी चुराती है रंग फूलों का
आंधियां नूर की महफ़िल को फ़ना करती हैं
पत्तियाँ सूख के तिनकों की शक्ल लेती हैं
सूखे तिनके किसी का घोंसला बन जाते हैं
चांदनी टूट के रोती है इस तबाही को
कोई हलचल यहाँ दिखाई ही नहीं देती
अब इसे देखने कोई यहाँ नहीं आता
अब ये गुलशन यूँ ही वीरान पड़ा रहता है

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