मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

अपनों से अलग

कितना आसान है अपनों से अलग हो जाना
झट से सामान का झोला उठा के चल देना
किसी बिजनिस का बहाना बना के चल देना
कभी पढने के लिए अपनों से जुदा होना
कभी पैसे के लिए अपनों की कुरबत खोना
कभी कह देना मेरा मन नहीं लगता है यहाँ
कभी बिन बात ही चल देते हैं हम जाने कहाँ
कभी भाई से झगड़ कर ख़ुशी तबाह करना
कभी दीवार खडी करने का गुनाह करना
हर लहर जानती है मूल से काटकर बहना
कितना मुश्किल है मगर अपनों से अलग रहना

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