मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

दिल दुखाने की आदत

उन्हें दिल की सुनने की फ़ुर्सत कहाँ है
मुझे फिर भी कोई शिकायत कहाँ है
गिला है मुझे सिर्फ़ ख़ुदगर्जियों से
मेरी ख़ुद से कोई बगावत कहाँ है
तुम अपने ही कारण परीशां हुए हो
मेरी दिल दुखाने की आदत कहाँ है
जिसे मैंने अपना ये दिल दे दिया है
उसे मेरे दिल की ज़रूरत कहाँ है

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