मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

अंदाज़ा न कर

वक़्त के ख़त का अंदाज़ा न कर
कल की आफ़त का अंदाज़ा न कर
ज़ख्म गहरा है दर्द होगा ही
अब रियायत का अंदाज़ा न कर
वक़्त पर खुद-ब-खुद पनपती है
यूँ ही हिम्मत का अंदाज़ा न कर
पेड़ होता है बीज के अन्दर
कद से ताकत का अंदाज़ा न कर
सिर्फ दो-चार मुलाक़ातों से
उन की फितरत का अंदाज़ा न कर
हँस के मिलना तो उन की आदत है
इस से उलफ़त का अंदाज़ा न कर
इस में मुमकिन है हर कोई मंज़र
इस सियासत का अंदाज़ा न कर
मेरे जामे को देख कर मेरी
बादशाहत का अंदाज़ा न कर
चाहता हूँ तुझे मीरा हो कर
तू इबादत का अंदाज़ा न कर
जिसने माँगा नहीं कभी भी
उसकी चाहत का अंदाज़ा न कर
माँ का आँचल न सहेजा तूने
अब तू राहत का अंदाजा न कर

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