मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

पुरवा

एक बादल ने सरे-शाम भिगोई पुरवा
सुबह फूलों से लिपट फूट के रोई पुरवा
उसने ओढ़ा हुआ होगा कोई ग़म का बादल
यूँ ही अलमस्त नहीं होती है कोई पुरवा
हाय ये शहर बहुत रूखा हुआ जाता है
अबके गाँवों ने क्या सरसों नहीं बोई पुरवा
तेरे दामन से क्यों उठती है महक ममता की
छू के आई है क्या अम्मा की रसोई पुरवा

3 comments:

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह भई वाह... कविता अच्छी है... आप बधाई स्वीकारें...

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह भई वाह... कविता अच्छी है... आप बधाई स्वीकारें...

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह भई वाह... कविता अच्छी है... आप बधाई स्वीकारें...

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