मेरे अंतर्मन की पावन-सी कुटिया में
मेरे गीतों की दिव्य-प्रेरणा बसती है
उसकी आँखों से बहती हैं गज़लें-नज़्में
कविता होती है जब वो खुल कर हंसती है
हर भाषा, संस्कृति, काल, धर्म और धरती की
हर उपमा उस सौंदर्य हेतु बेमानी है
सारे नश्वर लौकिक प्रतिमानों से ऊपर
सुन्दरता की वो शब्दातीत कहानी है
वो पावनता की एक अनोखी उपमा है
ज्यों गंगाजल से सिंचित तुलसी की क्यारी
वो शबरी के बेरों से ज़्यादा पावन है
मन झूम उठे उस से मिल वो इतनी प्यारी
सारे छल-बल से दूर, प्रपंचों से ऊपर
उसके लहजे में इक भोली चालाकी है
शब्दों में वेदऋचा-सी पावन सच्चाई
और संवादों में मीठी-सी बेबाकी है
वात्सल्य, प्रेम, अपनत्व, समर्पण से भरकर
उस ने मेरी जीवन-वसुधा मह्काई है
मीरा, राधा, रुक्मणी, यशोदा की मिश्रित
जैसे कान्हा ने मूरत एक बनाई है
दुनिया भर के बौने संबंधों से ऊंचा
मेरा उससे इक अलग, अनोखा नाता है
ये नाता इतना पावन, इतना निश्छल है
श्रृंगार इसे छूकर वंदन हो जाता है
जब कभी नेह आपूरित नयनों से भरकर
वो छठे-चौमासे मुझको अपना कहती है
तो रोम-रोम खिल उठता है; और कानों में
इस संबोधन की गूँज देर तक रहती है
वो है मेरी प्रेरणा इसी कारण शायद
मेरी रचनाओं में वैभत्स्य नहीं मिलता
श्रृंगार, हास्य, वात्सल्य छलकते हैं लेकिन
फूहड़ता का कोई भी दृश्य नहीं मिलता
उसके जीवन से जीवन-ऊर्जा हासिल कर
मैं दुनिया भर की पीड़ायें सह लेता हूँ
तूफानी संघर्षों की थकन मिटाने को
मैं कुछ पल इस गंगा तट पर रह लेता हूँ
जब सब थोथे ग्रंथों से मन भर जाता है
तो चुपके से उसका चेहरा पढ़ लेता हूँ
सुन्दरता की सब उपमाएं जब बौनी हों
तो कविता में उसकी प्रतिमा गढ़ लेता हूँ
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