मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

ज़हर काट दिया

सच के मंतर से सियासत का ज़हर काट दिया
हाँ ज़रा रास्ता मुश्किल था मगर काट दिया
वक्त-ए-रुख़सत तेरी आँखों की तरफ देखा था
फिर तो बस तेरे तखय्युल में सफ़र काट दिया
फिर से कल रात मेरी मुफलिसी के खंज़र ने
मेरे बच्चों की तमन्नाओं का पर काट दिया
सिर्फ शो-पीस से कमरे को सजाने के लिए
एक खुदगर्ज़ ने खरगोश का सर काट दिया
एक छोटा सा दिठौना मेरे माथे पे लगा
बद्दुआओं का मेरी माँ ने असर काट दिया

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