मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

लफ्ज़ बिन दास्तान

प्यार कब बेज़ुबान होता है
लफ्ज़ बिन दास्तान होता है
आँख तक बोलने लगें इसमें
इक मुकम्मल बयान होता है

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मूक परिभाषा, सभी पहचानते हैं।
प्यार की भाषा,नयन ही जानते हैं।।

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