मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

सच का उजाला लिए जिया

दुनिया की बदसलूकी का तोहफा लिए जिया
फिर भी मैं अपने सच का उजाला लिए जिया
टूटन, घुटन, गुबार, ज़िल्लातें, सफाइयां
इक शख्स सच के नाम पे क्या-क्या लिए जिया
जब तक मुझे गुनाह का मौक़ा ना था नसीब
तब तक मैं बेगुनाही का दावा लिए जिया
अपनी नज़र में बेलिबास था हरेक शख्स
दुनिया के दिखावे को लबादा लिए जिया
उसको ज़रूर जूझना पडा धुंए से भी
जो हाथ सकने का इरादा लिए जिया
रोशन रहे चराग उसी की मज़ार पर
जीते जिए जो दिल में उजाला लिए जिया
इक वो है जिसे शोहरत-ओ-दौलत मिली तमाम
इक मैं हूँ ज़मीरी का असासा लिए जिया
तुम पास थे या दूर थे इस का मलाल क्या
मैं तो लबों पे नाम तुम्हारा लिए जिया
आख़िर कफ़न में जेब एक भी ना थी 'चिराग'
ताउम्र हसरतों का मैं झोला लिए जिया

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