मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

आपा-धापी

किस क़दर हावी हुई हैं व्यस्तताएँ देखिये
कसमसा कर रह गईं संवेदनाएँ देखिये
स्वार्थ, बाज़ारीकरण और वासना की धुंध में
खो चुकी हैं प्रेम की संभावनाएँ देखिये

बँटवारा

जब से आंगन में हुए, दीवारों के ठाठ।
तब से मंहगे हो गए, छोटे-छोटे बाट॥

त्यौहार

जब से हम करने लगे, बात-बात में जंग
तब से फीके पड़ गए, त्यौहारों के रंग
धूम-धड़ाका बन गया, दीपों का त्यौहार
शोर-शराबा हो गया, होली का हुड़दंग

तीखे दोहे

रटी-रटाई प्रार्थना, सुना-सुनाया ज्ञान।
बोर किया भगवान को, कैसे हो उत्थान॥

सब चोरी का माल है, वाणी-भजन-कुरान।
प्रेम-पत्र लिखवा रहा, गैरों से नादान॥

ईश्वर, बालक, माँ, कवि, ये सब एक समान।
इन्हें प्रेम से जीत लो, छोड़ो वेद -पुराण॥

एक पल का मलाल है

न जहाँ में तेरा जवाब है, न नज़र में तेरी मिसाल है
तेरी दोस्ती भी कमाल थी, तेरी दुश्मनी भी कमाल है
क्या हसीन खेल है ज़िन्दगी, कभी ग़मज़दा कभी खुशनुमा
कभी एक उम्र का ग़म नहीं, कभी एक पल का मलाल है
मेरी सोच बदली तो साथ ही मेरी ज़िन्दगी भी बदल गई
कभी मुझको उसका ख़याल था, अब उसको मेरा ख़याल है
ज़रा ये बता दे कहाँ गयीं, तेरी दोस्ती तेरी उल्फतें
मुझे अपने ग़म से ग़रज़ नहीं, तेरी रहमतों का सवाल है
तेरी राह मुझसे बदल गई या कि वक़्त थोड़ा बदल गया
तब दूर जाना मुहाल था, अब साथ रहना मुहाल है

एकता

एक संग आकर कहें, कातिक औ रमजान।
एक जिल्द में बाँध दो, गीता और कुरान॥

दीपावली

प्रेम, शांति और सौम्यता, सबका हो विस्तार।
सबके जीवन में भरे, प्यार, प्यार और प्यार॥

जीवन बाती से जुड़े, पुरुषार्थों की आग।
हर आँगन संदीप्त हो, जाय अँधेरा भाग॥

पावन पुष्पों से गुंथें, ऐसे बन्धनवार।
न्हें लगाकर सज उठें, सबके तोरणद्वार॥

दिव्य-दिव्य हों कल्पना, दिव्य-दिव्य हों रंग।
दिव्य अल्पनायें बनें, हों सब दिव्य प्रसंग॥

भोर समीरों में घुलें, गेंदे के मकरंद।
सांझ ढले कर्पूर की, हर दिसि भरे सुगन्ध॥

लक्ष्मी का अवतार हो, हाथ लिए संतोष।
जिस से खाली हो सकें, सभी लालसा कोष॥

अपनत्व

प्रेमी को प्रेमी का होना भर ही काफी होता है
मन में श्रद्धा हो तो इक पत्थर ही काफी होता है
गैरों के संग रहना महलों में भी रास नहीं आता
अपनापन मिल जाये तो कच्चा घर ही काफी होता है

भाव

हम कलम थाम कर सोचते रह गए
भाव आँसू बने आंख से बह गए
इक ग़ज़ल कागज़ों पर उतर तो गयी
दर्द दिल के मगर अनकहे रह गए

निसार

तेरे दामन में प्यार भर देंगे
तेरे मन में श्रृंगार भर देंगे
कब तलक तू हमें न चाहेगा
खुद को तुझ पर निसार कर देंगे

वक्त

लड़खड़ाकर गिरे नहीं होते
ग़र तेरे आसरे नहीं होते
कम-नसीबी का दौर है वरना
हम भी इतने बुरे नहीं होते

इरादा

तेरे मन में भी इक इरादा है
मेरे मन में भी इक इरादा है
वक़्त की आँधियाँ बतायेंगी
कौन मजबूत कितना ज़्यादा है

अनछुआ अहसास

मेरे गीतों में मेरे प्रेम का विश्वास बिखरा है
कहीं पतझर उतरता है कहीं मधुमास बिखरा है
मेरी बातें दिलों को इसलिये छूकर गुज़रतीं हैं
कि इन बातों में कोई अनछुआ अहसास बिखरा है

जीवन

मुझे गुलमोहरों के संग झरना आ गया होता
किसी छोटे से तिनके पर उबरना आ गया होता
तो मरते वक़्त मेरी आंख में आँसू नहीं होते
कि जीना आ गया होता तो मरना आ गया होता

मेरे सपनों की जान

मुझ पे अब मेहरबान हो कोई
मेरे सपनों की जान हो कोई
मेरे दिल में उतर-उतर जाये
जैसे बंसी की तान हो कोई

मुहब्बत के तराने में

अजब-सी बात होती है मुहब्बत के तराने में
क़तल-दर-क़त्ल होते हैं सनम के मुस्कुराने में
मज़ा उनको भी आता है मज़ा हमको भी आता है
उन्हें नज़रें चुराने में हमें नज़रें मिलाने में

चाहत

मैं सजावट का सुगम संगीत लिखना चाहता हूँ
कंदरा संग पर्वतों की प्रीत लिखना चाहता हूँ
उत्तरा का मूक वैधव्य जकड़ लेता है मुझको
जब कभी मैं पांडवों की जीत लिखना चाहता हूँ

यादों के ताजमहल में

मैंने मुस्कानें भोगी हैं अब मैं ग़म भी सह लूंगा
स्मृतियाँ दिल में उफनीं तो आँसू बनकर बह लूंगा
तुम सपनों की बुनियादों पर रंगमहल चिनवा लेना
मैं यादों के ताजमहल में शासक बनकर रह लूंगा

सूरज

चंद पहरों की जिंदगानी में
कितने चेहरे बदल गया सूरज
दो घड़ी आँख से ओझल क्या हुआ
लोग कहते हैं ढल गया सूरज
रात गहराई तो समझ आया
सारी दुनिया को छल गया सूरज
आज फिर रोज़ की तरह डूबा
कैसे कह दें संभल गया सूरज

प्यार के रंगीन पल

आप संग बीते लम्हे पीड़ा अजानी हो गए
प्यार के रंगीन पल क़िस्से-कहानी हो गए
हर किसी के ख़्वाब जब से आसमानी हो गए
पाप के और पुण्य के तब्दील मानी हो गए
सर्द था मौसम तो बहती धार भी जम-सी गई
धूप पड़ते ही मरासिम पानी-पानी हो गए
वक़्त की हल्की-सी करवट का तमाशा देखिये
ये सड़क के लोग कितने खानदानी हो गए
मुफ़लिसी में सारी बातें गालियाँ बनकर चुभीं
दौलतें बरसीं तो उनके और मानी हो गए
आपसे मिलकर हमारे दिन हुए गुलदाउदी
आपको छूकर तसव्वुर रातरानी हो गए

बरसों तक

हमारा दिल था बड़ा बेक़रार बरसों तक
किसी ख़ुशी का रहा इंतज़ार बरसों तक
जो एक पल तमाम दर्द को भुला देगा
उसी की आस पे थे खुशग़वार बरसों तक
वो मुझसे रू-ब-रू हैं जिनकी इंतज़ारी थी
ये पल करेगा मुझे अश्क़बार बरसों तक
तमाम मयक़दों का सारा नशा बेमानी
वो देख लें तो न उतरे ख़ुमार बरसों तक
तुम्हारे वस्ल का पल फिर से लौट कर आए
यही दुआ करेंगे बार-बार बरसों तक
ये क्या तिलिस्म किया तुमने इक दफ़ा छूकर
ख़याल-ऐ-वस्ल रहा बरक़रार बरसों तक

वक्त ठहरते देखा

हमने सूरज को यहाँ डूब के मरते देखा
और जुगनू से अंधेरों को संवरते देखा
तूने जिस बात पे मुस्कान के परदे डाले
हमने उसको तेरी आँखों में उतरते देखा
तेरी ग़ज़लों के रहे मौजू-ए-गेसू-ए-सनम
हमने रातों में नदीदों को सिहरते देखा
एक लम्हे में तेरे साथ कई रुत गुज़रीं
तेरे जाने पे मगर वक्त ठहरते देखा
लोग कहते हैं बस इक शख्स मारा है लेकिन
क्या किसी ने वहां सपनों को बिखरते देखा

दिल दुखाने की आदत

उन्हें दिल की सुनने की फ़ुर्सत कहाँ है
मुझे फिर भी कोई शिकायत कहाँ है
गिला है मुझे सिर्फ़ ख़ुदगर्जियों से
मेरी ख़ुद से कोई बगावत कहाँ है
तुम अपने ही कारण परीशां हुए हो
मेरी दिल दुखाने की आदत कहाँ है
जिसे मैंने अपना ये दिल दे दिया है
उसे मेरे दिल की ज़रूरत कहाँ है

किस तरह

चिलमनों ने कर दिया है आंसुओं को बेनक़ाब
आँख दिल के हाल पर छुप-छुप के रोये किस तरह
इक तरफ़ हालत हैं, इक ओर दिल की बेबसी
आदमी फिर चैन से सोये, तो सोये किस तरह
ज़िन्दगी के तार में हालत की गिरहें पडीं
कोई रिश्तों के यहाँ मोटी पिरोये किस तरह
बेर, कीकर, नागफनियाँ ही पनपती हों जहाँ
बागबाँ उस रेत में गुलशन संजोये किस तरह
अश्क़-ओ-जज़्बों का जहाँ होता हो सौदा-ओ-मखौल
कोई नाज़ुक दिल वहां पलकें भिगोये किस तरह

मर्यादा

न हों हदों में तो छाले रिसाव देते हैं
किनारे धार को बाढब बहाव देते हैं
हदों में हैं तो खैरख्वाह हैं उंगलियों के
हदों को लाँघ के नाखून घाव देते हैं

दिखावा

मुहब्बत में सनम के बिन कोई मंज़र नहीं दिखता
सिवा दिलबर कोई भीतर, कोई बाहर नहीं दिखता
किसी को हर तरफ महबूब ही महबूब दिखता है
किसी को दूर जाकर भी ख़ुदा का घर नहीं दिखता

मंच की बाज़ीगरी

मसखरों की मसखरी अपनी जगह
शायरों की शायरी अपनी जगह
गीत लिखने का हुनर कुछ और है
मंच की बाज़ीगरी अपनी जगह

कवि

इक दफ़ा पलकों को अश्कों में भिगो लेते हैं हम
और फिर होंठों पे इक मुस्कान बो लेते हैं हम
गीत गाते वक़्त रुंध ना जाये स्वर इसके लिए
गीत लिखते वक़्त ही जी भर के रो लेते हैं हम

अपना घर

कजरी, गारी, फाग, जोगीरे भूल गए
बंसी, तबले, ढोल, मंझीरे भूल गए
इतनी तेज़ी से दुनिया की ओर बढ़े
अपने घर को धीरे-धीरे भूल गए

दस्तूर

यहाँ चलता नहीं दस्तूर कोई भी ज़माने का
गज़ब है लुत्फ़ इन राहों में सब कुछ हार जाने का
नज़र मिलते ही दिल काबू से बाहर जान पड़ता है
मुहब्बत में कहाँ मिलता है मौक़ा आजमाने का

अहसास

मुहब्बत के बिना अहसास से दिल तर नहीं होता
अगर अहसास ना हो तो सुखन बेहतर नहीं होता
मेरी पहचान है ये शायरी, ये गीत, ये गज़लें
किसी से प्यार ना करता तो मैं शायर नहीं होता

धड़कन

कोई चीखा है तो उस ने बड़ी तड़पन सही होगी
कोई यूँ ही नहीं चुभता कहीँ टूटन रही होगी
किसी को सिर्फ पत्थर दिल समझ कर छोड़ने वालों
टटोलो तो सही उस दिल मे इक धड़कन रही होगी

पुरवा

एक बादल ने सरे-शाम भिगोई पुरवा
सुबह फूलों से लिपट फूट के रोई पुरवा
उसने ओढ़ा हुआ होगा कोई ग़म का बादल
यूँ ही अलमस्त नहीं होती है कोई पुरवा
हाय ये शहर बहुत रूखा हुआ जाता है
अबके गाँवों ने क्या सरसों नहीं बोई पुरवा
तेरे दामन से क्यों उठती है महक ममता की
छू के आई है क्या अम्मा की रसोई पुरवा

ईनाम मिले

हमको ये ईनाम मिले
अपनों से इलज़ाम मिले
जो मौक़े पर धोखा दें
ऐसे यार तमाम मिले
रूह बेचकर शाह बना
उसको अच्छे दाम मिले
सालों साल प्रतीक्षा की
तब शबरी को राम मिले
हर दिन ये उम्मीद रखी
शायद कल आराम मिले

ज़हर काट दिया

सच के मंतर से सियासत का ज़हर काट दिया
हाँ ज़रा रास्ता मुश्किल था मगर काट दिया
वक्त-ए-रुख़सत तेरी आँखों की तरफ देखा था
फिर तो बस तेरे तखय्युल में सफ़र काट दिया
फिर से कल रात मेरी मुफलिसी के खंज़र ने
मेरे बच्चों की तमन्नाओं का पर काट दिया
सिर्फ शो-पीस से कमरे को सजाने के लिए
एक खुदगर्ज़ ने खरगोश का सर काट दिया
एक छोटा सा दिठौना मेरे माथे पे लगा
बद्दुआओं का मेरी माँ ने असर काट दिया

खामोश रहते हैं

बस इतना सोच कर हम लोग अब खामोश रहते हैं
कि जब हम बोलते हैं और सब खामोश रहते हैं
यहाँ आदाब तक को लोग बे-अदबी समझते हैं
यही सब देख कर हम बा-अदब खामोश रहते हैं
वो चुप हैं तो समझ लेना उन्हें सब कुछ पता होगा
जिन्हें थोड़ा पता होता है कब खामोश रहते हैं
मुहब्बत एक दिन ऐसा भी मंज़र पेश लाती है
निगाहें बोलती हैं और लब खामोश रहते हैं

पुल बनाओ तो सही

पुल बनाओ तो सही इस फ़ासले के सामने
मुश्किलें ख़ुद हल बनेंगी मसअले के सामने
आंधियाँ राहों में बिछ जायेंगी सजदे के लिए
आसमां छोटा पड़ेगा हौसले के सामने
जब जवानी चल पड़ेगी बांधकर सर पर कफ़न
कौन आएगा फिर उसके फ़ैसले के सामने
हिम्मतों ने ताक़ पर रखे ज़माने के उसूल
ताश के घर कब टिके हैं जलजले के सामने
रात भर लड़ता रहा था जो अंधेरे से 'चिराग़'
झुक गया सूरज भी ऐसे दिलजले के सामने

ये अलग बात है

चाहता हूँ उन्हें ये अलग बात है
वो मिलें ना मिलें ये अलग बात है
एक एहसास से दिल महकने लगा
गुल खिलें ना खिलें ये अलग बात है

एक दूजे से हम यूँ ही मिलते रहें
ज़िन्दगी भर का नाता बने ना बने
हम समर्पण के सदभाव से पूर्ण हों
हम में कोई प्रदाता बने ना बने
दिल की बातें दिलों तक पहुंचती रहें
लब हिलें ना हिलें ये अलग बात है
चाहता हूँ उन्हें ये अलग बात है.........

उनकी बातों में समिधा की पावन महक
मुस्कुराहट में है यक्ष का अवतरण
आंख में झिलमिलाती है दीपक की लौ
अश्रु हैं जैसे पंचामृती आचमन
मेरी श्रध्दा नमन उनको करती रहे
वर मिलें ना मिलें ये अलग बात है
चाहता हूँ उन्हें ये अलग बात है.....

कितना आसान है

कितना आसान है रिश्तों को फ़ना कर देना
ज़रा सी बात को दिल से लगा के रख लेना
ग़ैर लोगों को, रकीबों को तवज्जो देना
शक की तलवार से विश्वास को कर देना हलाल
अपने लहजे को तल्खियों के हवाले करना
अपने मनसूबों में कर लेना सियासत को शुमार
सामने वाले की हर बात ग़लत ठहराना
उस की हर एक तमन्ना को नाजायज़ कहना
उसको बिन बात हर इक बात पे रुसवा करना
उसकी हर बात में खुद्गार्ज़ियों की करना तलाश
उस से रख लेना बिना बोले समझने की उम्मीद
उसके आगे सदा हँसने का दिखावा करना
अपने हर दर्द की वजह उसे समझ लेना
प्यार को अनकही रंजिश की शक्ल दे देना
अपनी झूठी अना की दे के दुहाई हर दम
अपने अहसास के अमृत को ज़हर कर लेना
या कि इक पल में ही अपनों को ग़ैर कर देना.......
कितना मुश्किल है मगर रिश्तों को ज़िंदा रखना

गुलशन

मैंने गुलशन को कई बार संवरते देखा
हर तरफ रंग का खुशबू का समा होता है
पंछियों की चहक सरगम का मज़ा देती है
चांदनी टूट के गुलशन में बिखर जाती है
धूप पत्तों को उजालों से सजा देती है
कोई अल्हड़ कोई मदमस्त हवा का झोंका
शोख़ कलियों का बदन छू के निकल जाता है
इस शरारत से भी कलियों को मज़ा आता है
सबसे आंखें बचा के कलियाँ चटक जाती हैं
फूल खिलते हैं तो गुलशन में बहार आती है

पर ये रंगीन फ़ज़ा और ये गुलशन की बहार
वक़्त के साथ वीराने में बदल जाती है
धूप की तल्खी चुराती है रंग फूलों का
आंधियां नूर की महफ़िल को फ़ना करती हैं
पत्तियाँ सूख के तिनकों की शक्ल लेती हैं
सूखे तिनके किसी का घोंसला बन जाते हैं
चांदनी टूट के रोती है इस तबाही को
कोई हलचल यहाँ दिखाई ही नहीं देती
अब इसे देखने कोई यहाँ नहीं आता
अब ये गुलशन यूँ ही वीरान पड़ा रहता है

अपनों से अलग

कितना आसान है अपनों से अलग हो जाना
झट से सामान का झोला उठा के चल देना
किसी बिजनिस का बहाना बना के चल देना
कभी पढने के लिए अपनों से जुदा होना
कभी पैसे के लिए अपनों की कुरबत खोना
कभी कह देना मेरा मन नहीं लगता है यहाँ
कभी बिन बात ही चल देते हैं हम जाने कहाँ
कभी भाई से झगड़ कर ख़ुशी तबाह करना
कभी दीवार खडी करने का गुनाह करना
हर लहर जानती है मूल से काटकर बहना
कितना मुश्किल है मगर अपनों से अलग रहना

मेरे गीतों की दिव्य प्रेरणा

मेरे अंतर्मन की पावन-सी कुटिया में
मेरे गीतों की दिव्य-प्रेरणा बसती है
उसकी आँखों से बहती हैं गज़लें-नज़्में
कविता होती है जब वो खुल कर हंसती है

हर भाषा, संस्कृति, काल, धर्म और धरती की
हर उपमा उस सौंदर्य हेतु बेमानी है
सारे नश्वर लौकिक प्रतिमानों से ऊपर
सुन्दरता की वो शब्दातीत कहानी है

वो पावनता की एक अनोखी उपमा है
ज्यों गंगाजल से सिंचित तुलसी की क्यारी
वो शबरी के बेरों से ज़्यादा पावन है
मन झूम उठे उस से मिल वो इतनी प्यारी

सारे छल-बल से दूर, प्रपंचों से ऊपर
उसके लहजे में इक भोली चालाकी है
शब्दों में वेदऋचा-सी पावन सच्चाई
और संवादों में मीठी-सी बेबाकी है

वात्सल्य, प्रेम, अपनत्व, समर्पण से भरकर
उस ने मेरी जीवन-वसुधा मह्काई है
मीरा, राधा, रुक्मणी, यशोदा की मिश्रित
जैसे कान्हा ने मूरत एक बनाई है

दुनिया भर के बौने संबंधों से ऊंचा
मेरा उससे इक अलग, अनोखा नाता है
ये नाता इतना पावन, इतना निश्छल है
श्रृंगार इसे छूकर वंदन हो जाता है

जब कभी नेह आपूरित नयनों से भरकर
वो छठे-चौमासे मुझको अपना कहती है
तो रोम-रोम खिल उठता है; और कानों में
इस संबोधन की गूँज देर तक रहती है

वो है मेरी प्रेरणा इसी कारण शायद
मेरी रचनाओं में वैभत्स्य नहीं मिलता
श्रृंगार, हास्य, वात्सल्य छलकते हैं लेकिन
फूहड़ता का कोई भी दृश्य नहीं मिलता

उसके जीवन से जीवन-ऊर्जा हासिल कर
मैं दुनिया भर की पीड़ायें सह लेता हूँ
तूफानी संघर्षों की थकन मिटाने को
मैं कुछ पल इस गंगा तट पर रह लेता हूँ

जब सब थोथे ग्रंथों से मन भर जाता है
तो चुपके से उसका चेहरा पढ़ लेता हूँ
सुन्दरता की सब उपमाएं जब बौनी हों
तो कविता में उसकी प्रतिमा गढ़ लेता हूँ

राधिका

छुप-छुप मिलती थी राधिका कन्हैया जी से
हौले-हौले उठ रहे शोर से विवश थी
साँवरे के ढिंग खींच लाती थी जो बार-बार
प्रीत की अनोखी उस डोर से विवश थी
इत होरी की उमंग, उत दुनिया से तंग
फागुन में गोरी चहुँ ओर से विवश थी
लोक-लाज तज भगी चली आई गोकुल में
मनवा में उठती हिलोर से विवश थी

इक लड़की

प्यार की बयार में ये दिल झूम नाचता है
जब दिल में उतरती है इक लड़की
नित नए रंग नित नयी मुस्कान लिए
मन में उमंग भरती है इक लड़की
जीवन की सूनी बगिया महकती है जब
पारिजात बन झरती है इक लड़की
दिल ट्रिन-ट्रिन बजता है रोज़-रोज़ जब
सांझ ढले फ़ोन करती है इक लड़की

लफ्ज़ बिन दास्तान

प्यार कब बेज़ुबान होता है
लफ्ज़ बिन दास्तान होता है
आँख तक बोलने लगें इसमें
इक मुकम्मल बयान होता है

प्यार

ज़माने ने सुरों की आह को झंकार माना है
कहीं संवेदना जीती तो उसको हार माना है
बड़े बेईमान मानी तय किये हैं भावनाओं के
जहाँ दो दिल तड़पते हों उसी को प्यार माना है

मुक़म्मल क़लाम

सभी ग़मों को ग़ज़ल का मुकाम देता है
ख़ुदा सभी को कहाँ ये इनाम देता है
वो जिसकी एक-एक साँस जैसे मिसरा हो
वही जहाँ को मुक़म्मल क़लाम देता है

ज़िंदगी की ग़ज़ल

कितनी मुश्किल है ज़िंदगी की ग़ज़ल
काफिया तंग बहर छोटी है
ख़ूब लम्बी हैं दर्द की रातें
और खुशियों की सहर छोटी है
खारे पानी का अथाह सागर है
मीठे पानी की नहर छोटी है
सागरों पर तो मर मिटी नदियां
सूखे खेतों में नहर छोटी है
ये मुक़द्दर है मेरी किश्ती का
दूर साहिल है लहर छोटी है

बचपन

हंसी-ख़ुशी के वो लमहे हज़ार बचपन के
ए काश लौटते दिन एक बार बचपन के
नहीं दिमाग न थे होशियार बचपन के
तभी तो दिन थे बड़े खुशगवार बचपन के
बड़े हुए तो कई लोग मिल गए लेकिन
बिछड़ चुके हैं सभी दोस्त-यार बचपन के
जो जिस्म को नही दिल को सुकून देते थे
बहुत अजीब थे वो रोज़गार बचपन के
सुबह लड़े तो शाम फिर से साथ खेल लिए
कभी रहे नहीं मन में गुबार बचपन के
सभी को चुपके से हर राज़ बता देते थे
सभी तो हो गए थे राज़दार बचपन के
ढले जो शाम तो गलियों में खेलने निकलें
बड़े हसीन थे वो इंतज़ार बचपन के
बड़ों पे ज़िद रही छोटों पे इक रुआब रहा
कहाँ बचे हैं अब वो इख्तियार बचपन के
ज़हन में कौंध के होंठों पे बिखर जाते हैं
वो वाकयात हैं जो बेशुमार बचपन के

तू भी सब सा निकला

जो भी जितना सच्चा निकला
वो ही उतना तनहा निकला
सुख के छोटे से कतरे में
गम का पूरा दरिया निकला
कुछ के वरक ज़रा मंहगे थे
माल सभी का हल्का निकला
तुझको खुद सा समझा मैंने
लेकिन तू भी सब सा निकला
कौन यहाँ कह पाया सब कुछ
कम ही निकला जितना निकला

साथ निभाने वाले

हमने देखे हैं कई साथ निभाने वाले
तुमको भी बरगला लेंगे ये ज़माने वाले
बारिशों में ये नदी कैसा कहर ढाती है
ये तो बस जानते हैं इसके मुहाने वाले
धूप जिस पल मेरे आंगन में बिखर जायेगी
और जल जायेंगे दीवार उठाने वाले
मौत ने ईसा को शोहरत कि बुलंदी बख्शी
ख़ाक में मिल गए सूली पे चढ़ाने वाले
पहले आंखों को तो सिखला ले दिखावे का हुनर
झूठी बातों से हकीकत को छिपाने वाले
सच कि राहों पे इक सुकून लाख मुश्किल हैं
सोच ले दो घड़ी ए जोश में आने वाले

आदमी यकसा मिला

हर कोई खुद को यहाँ कुछ खास बतलाता मिला
हर किसी में ढूँढने पर आदमी यकसा मिला
आज के इस दौर में आदाब की कीमत कहाँ
वो कलंदर हो गया जो सबको ठुकराता मिला
हर दफा इक बेकारारी उन से मिलने की रही
हर दफा ऐसा लगा इस बार भी बेजा मिला
जिसने उमीदें रखीं ओर कोशिशें हरगिज़ न कीं
उसको अंजाम-ए-सफ़र रुसवाई का तोहफा मिला
रात जब सोया तो हमबिस्तर रहा उनका ख़्याल
सुबह जब जागा तो होंठों पर कोई बोसा मिला

अंदाज़ा न कर

वक़्त के ख़त का अंदाज़ा न कर
कल की आफ़त का अंदाज़ा न कर
ज़ख्म गहरा है दर्द होगा ही
अब रियायत का अंदाज़ा न कर
वक़्त पर खुद-ब-खुद पनपती है
यूँ ही हिम्मत का अंदाज़ा न कर
पेड़ होता है बीज के अन्दर
कद से ताकत का अंदाज़ा न कर
सिर्फ दो-चार मुलाक़ातों से
उन की फितरत का अंदाज़ा न कर
हँस के मिलना तो उन की आदत है
इस से उलफ़त का अंदाज़ा न कर
इस में मुमकिन है हर कोई मंज़र
इस सियासत का अंदाज़ा न कर
मेरे जामे को देख कर मेरी
बादशाहत का अंदाज़ा न कर
चाहता हूँ तुझे मीरा हो कर
तू इबादत का अंदाज़ा न कर
जिसने माँगा नहीं कभी भी
उसकी चाहत का अंदाज़ा न कर
माँ का आँचल न सहेजा तूने
अब तू राहत का अंदाजा न कर

सच का उजाला लिए जिया

दुनिया की बदसलूकी का तोहफा लिए जिया
फिर भी मैं अपने सच का उजाला लिए जिया
टूटन, घुटन, गुबार, ज़िल्लातें, सफाइयां
इक शख्स सच के नाम पे क्या-क्या लिए जिया
जब तक मुझे गुनाह का मौक़ा ना था नसीब
तब तक मैं बेगुनाही का दावा लिए जिया
अपनी नज़र में बेलिबास था हरेक शख्स
दुनिया के दिखावे को लबादा लिए जिया
उसको ज़रूर जूझना पडा धुंए से भी
जो हाथ सकने का इरादा लिए जिया
रोशन रहे चराग उसी की मज़ार पर
जीते जिए जो दिल में उजाला लिए जिया
इक वो है जिसे शोहरत-ओ-दौलत मिली तमाम
इक मैं हूँ ज़मीरी का असासा लिए जिया
तुम पास थे या दूर थे इस का मलाल क्या
मैं तो लबों पे नाम तुम्हारा लिए जिया
आख़िर कफ़न में जेब एक भी ना थी 'चिराग'
ताउम्र हसरतों का मैं झोला लिए जिया

बँटवारा

जब से आँगन में हुए, दीवारों के ठाठ
तब से मंहगे हो गए, छोटे-छोटे बाट

तुमसे मिलना

तुमसे मिलना
जैसे हाईवे पर दौड़ती गाड़ी
दो पल को ठहरे
किसी पैट्रोल पम्प पर
...जैसे परवाज़ की ओर बढ़ता परिंदा
यकायक उतर आये
धरती पर
पानी की चाह में
...जैसे बहुत लंबी
मरुथली यात्रा के दौरान
हरे पेड़ की छाँव!

नव वर्ष

जब नए साल की प्रथम किरण
धरती के आँगन में उतरे
तब हर प्राणी की श्वासों में
उल्लास-हर्ष का स्वर उतरे
सबके अंतस में घुल जाये
पावनता का अहसास नया
सब जीर्ण-शीर्ण संबंधों में
फिर से पनपे विश्वास नया
वंशी अधरों का चुम्बन ले
सरगम को उसके गीत मिलें
कुछ कोमल सपने पूरे हों
आशा के सुन्दर फूल खिलें....

जीवन की खाली झोली में
खुशियाँ भर दे ये नया साल!
इतना कर दे ये नया साल

निश्छल सौंदर्य

उस से नहीं मिलूं तो मन में बेचैनी-सी रहती है
उसकी आँखों में इक पावन देव नदी-सी बहती है
उसके गोरे, नर्म, गुलाबी पाँव बहुत ही सुन्दर हैं
उसकी बातें निश्छलता का ठहरा हुआ समंदर हैं
उसकी वाणी मुझको सब वेदों से सच्ची लगती है
उसकी मीठी-मीठी बोली कितनी अच्छी लगती है
वो न जाने क्यों मुझसे अनजानी बातें करती है
मन की मलिका वो ढेरों मनमानी बातें करती है
वो अक्सर मेरे कंधे पर सर रखकर सो जाती है
वो जिससे दो घड़ी बोल ले उसकी ही हो जाती है
मुझको उसके बालों को सहलाने में सुख मिलता है
उसकी कोमल बांहों में खो जाने में सुख मिलता है
वो मेरी सूनी आँखों में काजल बनकर लेटी है
वो गदराई-सी लड़की मेरी छोटी-सी बेटी है
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