मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

सही उत्तर

यूँ ही पूछ बैठी थी तुम
'मेरे बिना रह पाओगे?'

-सुनकर
मेरे मस्तिष्क में
एकाएक कौंध गया एक प्रश्न-
'क्या तुम सही उत्तर सह पाओगी?'

...ख़ुद से उलझते-जूझते
न जाने कब
मेरे मुँह से निकल गया-
'नहीं!'

...और तुमने
इसे अपने प्रश्न का
उत्तर समझ लिया!

2 comments:

शोभित जैन said...

यार कहीं आप मानव मस्तिष्क पर PhD तो नहीं कर रहे....

Anonymous said...

bahut minute observation hai apka
bahut achchhi rachna hai

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