मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

संवेदनाओं की आड़ में

पहले भी करते रहे हैं लोग
मेरा उपयोग
'इस' या 'उस' के लिए!

पहले भी कई बार झुंझलाया हूँ मैं
स्वयं पर
किसी 'अपने' के द्वारा
छले जाने के बाद

पहले भी मैं ख़ुद से बतियाता रहा हूँ
…कि आँखें झूठ नहीं बोलतीं
…कि मेरी सच्चाई का साक्षी है ईश्वर
…कि शायद कोई समझता है
मेरे हिस्से के सच को
…कि नहीं छला जा सकता
किसी को
भावनाओं के नाम पर...!

शायद तुम
पहले भी मिल चुके हो मुझे
संवेदना की आड़ में!

1 comment:

Anonymous said...

kya baat hai chirag ji
bahut jali-bhuni kavitaye likh rahe ho
dil toot gaya kya?

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