मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

मन की अदालत

एक ही पल में
उभर आए
कई सारे शिक़वे
ढेर सारे ग़िले
और फिर
अगले ही पल
मैंने ख़ुद-ब-ख़ुद
बेकार साबित कर दिया उन्हें
अपने मन की अदालत में

....ऐसा नहीं था
कि सचमुच
बेकार थी मेरी शिक़ायतें
बल्क़ि सच तो यह है
कि मैं
मुहब्बत करता हूँ
तुमसे!

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