मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

गिला

है अगर वो ग़ैर तो कैसा गिला
और अगर अपना है तो फिर क्या गिला
वो मरासिम फिर कहाँ क़ायम रहा
जिसमें पनपा हो कभी शिक़वा-गिला
वो हमें इलज़ाम देते रह गए
और हम सुनते रहे उनका गिला
ज़ख़्म सारे वक़्त भर देगा मगर
बच ही जाएगा कहीं थोड़ा गिला
तुम मेरी राहों पे चल कर देख लो
लापता हो जाएगा सारा गिला
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