मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

मर गईं

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं
नेकियाँ ख़ुदगर्जियों के पास आकर मर गईं
जिनके दम पर ज़िन्दगी जीते रहे हम उम्र भर
अंत में वो ख्वाहिशें भी डबडबाकर मर गईं
बदनसीबी, साज़िशें, दुश्वारियाँ, मात-ओ-शिक़स्त
जीत की चाहत के आगे कसमसाकर मर गईं
मीरो-ग़ालिब रो रहे थे रात उनकी लाश पर
नज्म-ओ-ग़ज़लें चुटकुलों के बीच आकर मर गईं
वो लम्हा जब झूठ की महफ़िल में सच दाखिल हुआ
साजिशें उस एक पल में हड़बड़ाकर मर गईं
क्या इसी पल के लिए करता था गुलशन इंतज़ार
जब बहार आई तो कलियाँ खिलखिलाकर मर गईं
जिन दियों में तेल कम था उन दियों की रोशनी
तेज़ चमकी और पल में डगमगाकर मर गईं
दिल कहे है प्रेम में उतरी तो मीरा जी उठी
अक्ल बोले- बावरी थी, दिल लगाकर मर गईं
ये ज़माने की हक़ीक़त है, बदल सकती नहीं
बिल्लियाँ शेरों को सारे गुर सिखाकर मर गईं

3 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया है ... बधाई।

वीनस केसरी said...

चिराग भाई

दिल खुश हो गया पढ़ कर

गजल व बहर के विषय में कोई भी जानकारी चाहिए हो तो सुबीर जी के ब्लॉग पर जाइये
www.subeerin.blogspot.com
आपका वीनस केसरी

श्यामल सुमन said...

बहुत खूब। देखिये इसी तर्ज पर मेरी भी एक तात्कालिक तुकबंदी-

मैंने भी खुद से जलाया झोपड़ी में इक चिराग।
थी कमी बस तेल की लौ छटपटाकर मर गई।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

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