मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

शायद

बाक़ी नहीं है दिल में कोई कराह शायद
मुद्दत हुई, हुए थे हम भी तबाह शायद
फिर से जहान वाले बदनाम कर रहे हैं
फिर से हुई है हम पर उनकी निगाह शायद
किस बात पर तू सबसे इतना ख़फ़ा-ख़फ़ा है
तुझको कचोटता है तेरा गुनाह शायद
फिर रेत पर लहू की बूंदें दिखाई दी हैं
कोई ढूंढने चला है सहरा में राह शायद
दुल्हन की आँख में क्यों नफ़रत उतर रही है
क़ाज़ी ने पढ़ दिया है झूठा निक़ाह शायद
चेहरे पे दर्द है पर आँखों में है चमक-सी
तुम मानने लगे हो दिल की सलाह शायद

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