मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

नमक

यूँ चखा हमने बहुत दुनिया के स्वादों का नमक
है ज़माने से अलग, माँ की मुरादों का नमक
तू परिन्दा है तेरी परवाज़ ना दम तोड़ दे
लग गया ग़र शाहज़ादों के लबादों का नमक
आँसुओं की शक्ल ले लेंगी तड़प और सिसकियाँ
दिल के छालों पर जो गिर जाएगा यादों का नमक
दावतें धोखे की हरगिज़ हो न पाएंगी लजीज़
ग़र न होगा उनमें कुछ यारों के वादों का नमक
दिल की धरती पर अमन के फूल महकेंगे नहीं
मिल गया मिट्टी में गर क़ातिल इरादों का नमक

2 comments:

रज़िया "राज़" said...

नमक
यूँ चखा हमने बहुत दुनिया के स्वादों का नमक
है ज़माने से अलग, माँ की मुरादों का नमक
सुंदर रचना। नमक की लाज रखली।

शोभित जैन said...

बहुत ही नमकीन ग़ज़ल है भाई मुँह खारा हो गया हो गया .... हर बार कोई ना कोई नया स्वाद कहा से लाते हो .....

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