मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

उम्मीद

तुम हमेशा मुझे दोषी ठहराती हो
कि मैं अपने रिश्तों में
उम्मीदें बहुत रखता हूँ
लेकिन समझ नहीं पाता हूँ मैं
कि उम्मीद के बिना
निभ ही कैसे सकता है
कोई संबंध?

...उम्मीद के बिना तो
दान दिया जाता है!

2 comments:

neil said...

aapki kuch na kahne k koshish ... sach me vo sab kahti hai jo sab kahna chahte hain.. great...

वर्तिका said...

so true... nd so beautiful....

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