मुहब्बत में सनम के बिन कोई मंज़र नहीं दिखता
सिवा दिलबर कोई भीतर, कोई बाहर नहीं दिखता
किसी को हर तरफ महबूब ही महबूब दिखता है
किसी को दूर जाकर भी ख़ुदा का घर नहीं दिखता
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
- प्रकाशित कविताएँ: 104
- प्रकाशित प्रतिक्रियाएँ: 116
No comments:
Post a Comment