छुप-छुप मिलती थी राधिका कन्हैया जी से
हौले-हौले उठ रहे शोर से विवश थी
साँवरे के ढिंग खींच लाती थी जो बार-बार
प्रीत की अनोखी उस डोर से विवश थी
इत होरी की उमंग, उत दुनिया से तंग
फागुन में गोरी चहुँ ओर से विवश थी
लोक-लाज तज भगी चली आई गोकुल में
मनवा में उठती हिलोर से विवश थी
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