मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

मेरी राहों पे चलकर देख लेना

मेरी आँखों का मंज़र देख लेना
फिर इक पल को समंदर देख लेना
सफ़र की मुश्क़िलें रोकेंगी लेकिन
पलटकर इक दफ़ा घर देख लेना
किसी को बेवफ़ा कहने से पहले
ज़रा मेरा मुक़द्दर देख लेना
बहुत तेज़ी से बदलेगा ज़माना
कभी दो पल ठहरकर देख लेना
हमेशा को ज़ुदा होने के पल में
घड़ी भर आँख भरकर देख लेना
मेरी बातों में राहें बोलतीं हैं
मेरी राहों पे चलकर देख लेना
न पूछो मुझसे कैसी है बुलन्दी
मैं जब लौटूँ मेरे पर देख लेना
मुझे इक बेतआबी दे गया है
किसी का आह भरकर देख लेना
ज़माने की नज़र में भी हवस थी
तुम्हें भी तो मेरे परदे खले ना
मिरे दुश्मन के हाथों फैसला है
क़लम होगा मिरा सर देख लेना

7 comments:

अनिल कान्त said...

bhai waah bahut khoob likha hai bhai

Anonymous said...

chirag ji
itna intzaar mat karaaya kijiye
ab aadat ho gayi hai aapki kavitaaon ki
thodi speed badhao plz

वर्तिका said...

"सफ़र की मुश्क़िलें रोकेंगी लेकिन
पलटकर इक दफ़ा घर देख लेना"

"न पूछो मुझसे कैसी है बुलन्दी
मैं जब लौटूँ मेरे पर देख लेना"

waah!

IshwarKaur said...

nice, achi lagi

Unknown said...

bahut khoob

Kirti singh said...

You are great sir

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

Waah!

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