हर नई रुत के साथ पलटेगी
ख़ुश्बू-ए-क़ायनात पलटेगी
ये सियासत है इस सियासत में
एक प्यादे से मात पलटेगी
किसकी बातों का क्या यकीन करें
पीठ पलटेगी बात पलटेगी
रंग परछाई तक का बदलेगा
सुब्ह होगी तो रात पलटेगी
तुम संभल कर बस अपनी चाल चलो
इक न इक दिन बिसात पलटेगी
वक्त ज़ब-जब भी करवटें लेगा
ज़िन्दगी साथ-साथ पलटेगी
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4 comments:
बिल्कुल सही लिखा ..
बहुत अरसे बाद आपका लिखा पढ़ा जैन साहेब...लेकिन कोई गिला शिकवा नहीं क्यूँ की आपने बहुत ही अच्छी ग़ज़ल पढने को दी है...रदीफ़ का क्या खूब प्रयोग किया है...वाह...लिखते रहा करें...
नीरज
waah! kya khoob gazal hui hai...
अतिसुन्दर...प्रभाव छोडती रचना
- सुलभ
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