मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

एक ही प्रश्न

हर रात
मैं बुनता था इक ख़्वाब
और फिर
उसको अधूरा छोड़
चुपचाप सो जाता था
कि जब वक़्त आएगा
तो तुम्हारे साथ
पूरा करूंगा
ये ख़ूबसूरत ख़्वाब…

एक-एक करके
न जाने कितने ही ख़्वाब
इकट्ठे हो गए
मेरे तकिए के नीचे।

आज जब सोने लगा मैं
बिना संजोए कोई ख़्वाब
तो अचानक
तकिए के नीचे से निकल
मेरे सामने खड़े हो गए
हज़ारों अधूरे ख़्वाब।
सबकी भंगिमा में मौजूद था
एक ही प्रश्न-
"अब हमारा क्या होगा?"

मैंने कहा-
"यही तो
मैं भी सोच रहा हूँ…"

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