मन के बाग़ में बिखरी है भावनाओं की ओस। …………कुछ बूंदें छूकर मैंने भी नम कर ली हैं हथेलियाँ …………और लोग मुझे कवि समझने लगे!

किसी ईश को प्रणाम मत कीजिये

नानक, कबीर, महावीर, पीर गौतम को
पंथ, देश जातियों का नाम मत दीजिये
जिसने समाज की तमाम बेड़ियाँ मिटाईं
उसे किसी बेड़ी का ग़ुलाम मत कीजिये
मन के फ़क़ीर, अलमस्त महामानवों को
रुढ़ियों से जोड़ बदनाम मत कीजिये
मानव के प्रति प्रेम ही प्रभु की अर्चना है
भले किसी ईश को प्रणाम मत कीजिये

उम्मीद

तुम हमेशा मुझे दोषी ठहराती हो
कि मैं अपने रिश्तों में
उम्मीदें बहुत रखता हूँ
लेकिन समझ नहीं पाता हूँ मैं
कि उम्मीद के बिना
निभ ही कैसे सकता है
कोई संबंध?

...उम्मीद के बिना तो
दान दिया जाता है!

जीवंत हो उठी है माँ!

गाँव का पुराना मकान
कच्चा-पक्का फ़र्श
दीमक लगी जर्जर चौखट
और देहरी के दोनों ओर
चिकनाई के
दो गोल निशान!

.....मुद्दत हुई
हर साल दीपावली पर
दीपक जलाते थे दो हाथ।
फिर अपने पल्लू की ओट में छिपाकर
हवा के झोंके से बचाते हुए
दीवार की आड़ में
हौले से देहरी पर
दो दीपक धर आते थे दो हाथ।

......
.........न जाने क्यों
आज फिर से
जीवंत हो उठी है माँ!

रिक्शावाला : एक संत्रास

डरी-सहमी पत्नी
और तीन बच्चों के साथ
किराए के मकान में
रहता है रिक्शावाला।

बच्चे
रोज़ शाम खेलते हैं एक खेल
जिसमें सीटी नहीं बजाती है रेल
नहीं होती उसमें
पकड़म-पकड़ाई की भागदौड़
न किसी से आगे निकलने की होड़
न ऊँच-नीच का भेद-भाव
और न ही छुपम्-छुपाई का राज़

....उसमें होती है
''फतेहपुरी- एक सवारी''
-की आवाज़।

छोटा-सा बच्चा
पुरानी पैंट के पौंचे ऊपर चढ़ा
रिक्शा का हैंडिल पकड़
ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाता है,
और छोटी बहन को सवारी बना
पिछली सीट पर बैठाता है

...थोड़ी देर तक
उल्टे-सीधे पैडल मारने के बाद
अपने छोटे-काले हाथ
सवारी के आगे फैला देता है
नकली रिक्शावाला

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार
उतर जाती है सवारी
अपनी भूमिका के साथ में
और मुट्ठी में बँधा
पाँच रुपये का नकली नोट
(....जो निकलता है
एक रुपए के सौंफ के पैकिट में)
थमा देती है
नकली रिक्शावाले के हाथ में।

तभी खेल में
प्रवेश करता है तीसरा बच्चा;
पकड़ रखी है जिसने
एक गन्दी-सूखी लकड़ी
ठीक उसी तरह
...ज्यों एक पुलिसवाला
डंडा पकड़ता है अपने निर्मम हाथ में।

मारता है रिक्शा के टायर पर
फिर धमकाता है उसे
पुलिसवाले की तरह;
और छीन लेता है
नकली बोहनी के
नकली पैसे
नकली रिक्शावाले से
नकली पुलिसवाला बनकर
असली पुलिसवाले की तरह।

जैन धर्म

राष्ट्र के निमित्त बलिदान कैसे करते हैं
भामाशाह वाली वो कहानी मत भूलना
आस्था के बल पे जो कर्मों से जीत गई
महासती मैना जैसी रानी मत भूलना
सत्य के लिए जिन्होंने प्राण तक त्याग दिए
अकलंक जैसे महादानी मत भूलना
राजुल ने जहाँ धोई मेहंदी सुहाग वाली
गिरनार का वो लाल पानी मत भूलना

जियो और जीने दो की बात करते हैं हम
कहीं और ऐसा उपदेश नहीं मिलता
मृत्यु के क्षणों को भी महोत्सव सा मानते हैं
धरती पे ऐसा परिवेश नहीं मिलता
सारा सुख वैभव जो जीत के भी त्याग जाए
दूसरा तो कोई गोमटेश नहीं मिलता
तप-त्याग से यहाँ परमपद मिलते हैं
हाथी-घोड़े वालों को प्रवेश नहीं मिलता

पंथ हैं अनेक जिनमत में भले ही पर
मोक्षमार्ग वाला सुविचार बस एक है
सैंकडों हैं वाद-औ-विवाद फिर भी मगर
अहिंसा पे सबका विचार बस एक है
मान्यताएं सबकीं भले ही हों अनेक किंतु
पाँच पद वाला नवकार बस एक है
कैसे नर्कों से निर्वाण पहुँचेगा जीव
पूरे जिन-आगम का सार बस एक है

महावीर वन्दना

त्रिशला के लाल तेरा कैसा है कमाल
नहीं तन पे रुमाल फिर भी तू महाराज है
जीत लिया काल काट कर्मों का जाल
नोच दिए सब बाल तेरे वीरता के काज हैं
तप का धमाल तेरे त्याग का धमाल
तेरी सधी हुई चाल तेरा दुनिया पे राज है
धरती निहाल, तो पे आसमां निहाल
सारी जगती निहाल तू त्रिलोक सरताज है

महावीर स्वामी बनें तेरे अनुगामी; सारी
दुनिया के प्राणी नाथ ऐसा वर दीजिए
बंद हो समर बहे प्रेम निर्झर; मिटे
चेहरों से डर कुछ ऐसा कर दीजिए
आसुरी प्रयास पर बाँसुरी विजयी बने
अधरों पे मीठी मुस्कान धर दीजीए
पाँच अणुव्रत दश-धर्मों की गूँज उठा
भारत को फिर से महान कर दीजिए

महावीर वाणी

क्षमा को भुलाओ नहीं, मति भरमाओ नहीं
घाव को कुरेदोगे तो खून बह जाएगा
जो हुआ सो भूल जाओ, आज में सुधार लाओ
निज को सँवारे वही वीर कहलाएगा
अम्बर को छोड़ के दिगम्बर को ओढ़ ले तो
धन्य तेरी जननी का क्षीर कहलाएगा
समता का भाव धरे, काऊ से न राग करे
तब ही 'चिराग़' महावीर कहलाएगा

अहिंसा

बारुदों के ढेर पर दुनिया खड़ी है देखो
ज़ख्मों का एक ही इलाज है अहिंसा
धाँय-धाँय, धड़-धड़, धूम-धूम की ध्वनि में
वीणा के सुरों-सा एक साज है अहिंसा
तोप-टैंक-बम-परमाणुओं की कुंडली में
साढ़ेसाती जैसी एक गाज है अहिंसा
ऐरों-गैरों-नत्थूखैरों कायरों का काम नहीं
वीर-महावीरों की आवाज़ है अहिंसा

अगर-मगर से बचा

चलो किसी तरह मैं मुश्क़िले-सफ़र से बचा
ख़ुदा मुझे तू अब गुमान के असर से बचा
इन आइनों के सामने से ज़रा बच के निकल
तू अपने आप को ख़ुद अपनी भी नज़र से बचा
अगर इस आग को बढ़ने से रोकना चाहे
तो अपने मुल्क को इस आग की ख़बर से बचा
ये दुनिया हर किसी पे उंगलियाँ उठाती है
तू अपनी सोच को रुसवाइयों के डर से बचा
बनावटें तेरे सच को भी झूठ कर देंगी
अगर वो सच है तो उसको अगर-मगर से बचा
दिलों की बात कहाँ दुनिया की बिसात कहाँ
तू नज्मे-दिल को ज़माने की हर बहर से बचा

मर गईं

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं
नेकियाँ ख़ुदगर्जियों के पास आकर मर गईं
जिनके दम पर ज़िन्दगी जीते रहे हम उम्र भर
अंत में वो ख्वाहिशें भी डबडबाकर मर गईं
बदनसीबी, साज़िशें, दुश्वारियाँ, मात-ओ-शिक़स्त
जीत की चाहत के आगे कसमसाकर मर गईं
मीरो-ग़ालिब रो रहे थे रात उनकी लाश पर
नज्म-ओ-ग़ज़लें चुटकुलों के बीच आकर मर गईं
वो लम्हा जब झूठ की महफ़िल में सच दाखिल हुआ
साजिशें उस एक पल में हड़बड़ाकर मर गईं
क्या इसी पल के लिए करता था गुलशन इंतज़ार
जब बहार आई तो कलियाँ खिलखिलाकर मर गईं
जिन दियों में तेल कम था उन दियों की रोशनी
तेज़ चमकी और पल में डगमगाकर मर गईं
दिल कहे है प्रेम में उतरी तो मीरा जी उठी
अक्ल बोले- बावरी थी, दिल लगाकर मर गईं
ये ज़माने की हक़ीक़त है, बदल सकती नहीं
बिल्लियाँ शेरों को सारे गुर सिखाकर मर गईं

पल

हाँ, गुज़ारे थे कभी दो-तीन पल
कुछ हसीं, कुछ शोख, कुछ रंगीन पल
हर तरह की वासना से हीन पल
अब कहाँ मिलते हैं वो शालीन पल
भोग, लिप्सा, मोह के संगीन पल
कब, किसे दे पाए हैं तस्कीन पल
आपका आना, ठहरना, लौटना
इक मुक़म्मल हादसा थे तीन पल
साथ हो तुम तो मुझे लगता है ज्यों
हो गए हैं सब मेरे आधीन पल
कँपकँपाते होंठ, ऑंखों में हया
किस तरह भूलेंगे ये रंगीन पल
दिल में रोशन रख उमीदों के 'चिराग़'
छू न पाएंगे तुझे ग़मगीन पल

वरुण गांधी बनाम मेनका गांधी

जेल से जब वरुण गांधी का बयान आया
तो उन्होंने बताया
कि पुलिस का रवैया देख कर
उनका मन
धीरज खो रहा है
जेल में उनके साथ
जानवरों जैसा
बर्ताव हो रहा है!

ये पढ़कर
मेरा चेहरा
टिकट प्राप्त प्रत्याशी की तरह खिल गया
इस बयान के बाद
मेनका जी को
वरुण के समर्थन में
अभियान छेड़ने का
बहाना मिल गया।

सहारे की तरह

दिल भी है इक ख़ूबसूरत से इदारे की तरह
लोग आते-जाते हैं पानी के धारे की तरह
जब से ये संसार सारा हो गया है आसमां
तब से है इन्सानियत टूटे सितारे की तरह
चल सको तो तुम किसी के बन के उसके संग चलो
वरना इक दिन छूट जाओगे सहारे की तरह
दिल के रिश्तों को फरेबी उँगलियों से मत छुओ
जुड़ नहीं पाते बिखर जाते हैं पारे की तरह
ज़िन्दगी तुम बिन भी यूँ तो ख़ूबसूरत झील थी
तुम मगर इस झील में उतरे शिकारे की तरह
आपका चेहरा भी मीठी ईद-सा ख़ुशरंग है
खिलखिलाहट चांद-तारे के नज़ारे की तरह
एक अरसा साथ रह कर भी पराए ही रहे
वो समन्दर की तरह थे हम कनारे की तरह

कोई सरापा ग़ज़ल

कहाँ अचानक मिले हैं हम तुम, यहाँ के मौसम में शायरी है
जवान रुत, मदभरी हवाएँ, ये शाम जैसे ठहर गई है
महकती रुत उनके सुर्ख नाज़ुक लबों को छूकर बहक रही है
सनम के भीगे बदन की लरजिश हमारे लहजे में आ गई है
जो सोच की हद में आ गया हो, वो चाहे जो भी हो आदमी है
किसी तरह भी समझने से जो, समझ न आए ख़ुदा वही है
शराब पीकर बहकने वालों को, उस नशे की ख़बर नहीं है
वो उम्र भर फिर संभल न पाया रसूल की जिसने मय चखी है
नज़र में शोखी, जुबां में नरमी, बदन में मस्ती, लबों पे सुर्ख़ी
ये हुस्ने-जाना है या ख़ुदा ने कोई सरापा ग़ज़ल कही है

नमक

यूँ चखा हमने बहुत दुनिया के स्वादों का नमक
है ज़माने से अलग, माँ की मुरादों का नमक
तू परिन्दा है तेरी परवाज़ ना दम तोड़ दे
लग गया ग़र शाहज़ादों के लबादों का नमक
आँसुओं की शक्ल ले लेंगी तड़प और सिसकियाँ
दिल के छालों पर जो गिर जाएगा यादों का नमक
दावतें धोखे की हरगिज़ हो न पाएंगी लजीज़
ग़र न होगा उनमें कुछ यारों के वादों का नमक
दिल की धरती पर अमन के फूल महकेंगे नहीं
मिल गया मिट्टी में गर क़ातिल इरादों का नमक

शायद

बाक़ी नहीं है दिल में कोई कराह शायद
मुद्दत हुई, हुए थे हम भी तबाह शायद
फिर से जहान वाले बदनाम कर रहे हैं
फिर से हुई है हम पर उनकी निगाह शायद
किस बात पर तू सबसे इतना ख़फ़ा-ख़फ़ा है
तुझको कचोटता है तेरा गुनाह शायद
फिर रेत पर लहू की बूंदें दिखाई दी हैं
कोई ढूंढने चला है सहरा में राह शायद
दुल्हन की आँख में क्यों नफ़रत उतर रही है
क़ाज़ी ने पढ़ दिया है झूठा निक़ाह शायद
चेहरे पे दर्द है पर आँखों में है चमक-सी
तुम मानने लगे हो दिल की सलाह शायद
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